कोई भी फिल्म शुरु होती है तो पहला द्रश्य से ही दर्शक बहुत सारी
उम्मीद बांध लेते है। ठीक वैसी ही उम्मीद और जिज्ञासा जो हम किसी अच्छे
पढते लिखते बच्चे या नई नौकरी पाने वाले नौजवान से लगाते है। मानो पहले
प्यार को ढुंढता हुआ आशिक जो कुछ महसुस करता है। कोई नई गाडी खरीदने पर या
कोई नई जगह जाने पर नयापन लगता है। पता नहीं.....जाने आगे क्या हो!
'परिचय'
गुलज़ार जी की एक क्लासिक फिल्म है। शायद सभी ने यह फिल्म एक बार तो देखी
होगी। रामगोपाल वर्मा जिस तरह हर एक्टर को अलग केरेक्टर में पेश करते
थे....गुलज़ार जी ने यह बहुत पहेले ही कर दिया था! जितेन्द्र जैसे जम्पींग
जेक एक्टर को ईतना गंभीर और ठहराव वाला रोल देना ही बहुत अद्*भुत सोच थी।
सभी को जया बच्चन से तो अपेक्षा होती ही लेकिन जितेन्द्र?
फिर एक
फिल्म लिखना, उस की स्क्रीप्ट, संवाद भी लिखना और उपर से गीत भी
लिखना.....गुलज़ार ही कर सकतें है एसा तो! और फिल्म को देखो तो? पुरी तरफ
परफेक्ट, मानो एक एक क्षण किसी शिल्पकार ने धीरे धीरे उभारे हो। टेक्निकल
खामीयां भी कोई नहीं!
लेकिन आज कल जैसे ट्रेलर, प्रोमो और फिल्म
मेकिंग के सीन्स आधी फिल्म तो दिखा ही जाते है, जिस से दर्शक की आधी
जिज्ञासा तो पुरी ही हो जाती है। आधी फिल्म बे मतलब (फिल्म की कहानी में
जबरन डाले हुए ) गानों से भरी हुई होती है। एसे ही फिल्म
मेकर्सने नया श्लोक/आयात बोलिवुड को दी
है...
एन्टरटेईन्मेन्ट-एन्टरटेईन्मेन्ट-एन्टरटेईन्मेन्ट!
अगर दादा साहब फाळके या राज कपूर ने भी एसा ही सोचा होता तो?
खैर....अब परिचय की कहानी पर आते है।
राय साहब उसे घर से निकाल देतें है। स्वाभीमानी निलेश भी घर वापस नहीं लौटता। अपना जीवन गरीबी में व्यतित करता है। उसके कुल पांच बच्चे होते है। रमा, अजय, विजय, मीता और संजय (संजु)। निलेश की पत्नी गुजर जाती है और निलेश भी बहुत बिमार होता है।

वह अपने पिता कर्नल राय साहब को खत लिख कर बताता है। आखिरकार निलेश की मृत्यु के बाद वह बच्चे अपने दादा जी मतलब कि राय साहब के पास पहुंच जाते है।
रमा सबसे बडी थी और उसे लगता था की अपने पिता की मौत के जिम्मेदार उसके दादा राय साहब थे...वह उनसे खफा होती है। सारे बच्चे भी उसीका अनुकरण करतें है। गुस्सैल राय साहब और उनकी बहन सती देवी बच्चों पर सख्ती बरतती है।
बच्चों को टीचर की व्यवस्था घर में ही दी जाती है। लेकिन बच्चे अपनी शरारतों से उन सभी शिक्षकों को भगा देतें है। वे पढना ही नहीं चाहते।
रवि
शहर नौकरी ढुंढ रहा है| यहां एक बहुत ही
हृदयस्पर्शी सीन जोडा गया है, जिस को शायद कम लोगों ने नोटिस किया होगा/याद
रखा होगा। ईस सीन जब रवि एक बनिये के वहां नौकरी के लिए जाता है तो उसे नौकरी मिल जाती है। लेकिन उसे पता चलता है की उसको वह नौकरी कीसी बुढे कर्मचारी की जगह पर मिल रही है। रवि की उस बुढे कर्मचारी से बात, संवाद होता है। मुझे यह सीन बहुत पसंद आया। यह सीन आप जरुर देखिएगा। फिल्म
में यह सीन शायद जरा भी जरुरी नहीं था, कहानी से ईसका कोई तालुक भी नहीं
था। लेकिन फिर भी...जीवन की करूणा और मानवता फिल्मों में होनी/दिखानी ही
चाहिए; गुलज़ार जी यही मानते होंगे। सुपर्ब!
ईस से पहले गुलज़ार जी
की फिल्म मेरे अपने में मुख्य हीरो रह चूके विनोद खन्ना ने रवि के दोस्त
अमित का किरदार निभाया...जो मेरे खयाल से बड़ी उदारता है।
अमित रवि
को सलाह देता है जब तक नौकरी न मिल जाए गांव जा कर उसके मामा जी जो नौकरी
दिलवा रहें है....वह कर ले। फिर अच्छी नौकरी मिलने पर चाहे तो वापस लौट आए।
ईस प्रकार रवि गांव की ओर निकल पडता है, ईस कर्णप्रिय गीत के साथ....मुसाफिर हुं यारो!
रवि
अपने मामा जी के साथ राय साहब को मिलने जाता है और वहां उसकी शिक्षक की
नौकरी पक्की हो जाती है। वहां रवि किस तरह धीरे धीरे शरारती बच्चॉ के
सुधारता है और उनका दोस्त बनता है यह कहानी का सबसे मजेदार हिस्सा है।
धीरे
धीरे रमा रवि से प्यार करने लगती है, राय साहब भी रवि पर विश्वास करने
लगते है। रवि धीरे धीरे अपने प्रयासों से बच्चों के दिल से अपने दादा जी,
मतलब की राय साहब के प्रति जो गुस्सा था वह निकाल देता है।
उल्लेखनीय
है की विलन या नेगेटीव रोल में प्रस्थापित हो चूके प्राण साहब की केरेक्टर
भूमिका दर्शकों और विवेचकों द्वारा बहुत पसंद की गई। जितेन्द्र और प्राण
को अपने चलते आ रहे रोल से अलग लेकिन यथायोग्य रोल में देखना...बहुत फ्रेश
अप्रोच था!
राय साहब के नौकर 'नारायण' का रोल असरानी ने अदा किया
है। यकीन मानीए ईस रोल को असरानी के अलावा अन्य कोई भी शायद ही न्याय दे
पाता। नारायण स्वामी भक्त है और कर्नल राय साहब के अकेलेपन के दुख से अच्छी
तरह वाकेफ है।
ईस बीच कर्नल साहब को काम के सिलसिले में बाहर जाना पडा। बच्चे जो घर में कैद से थे वह अब अधिक खुल गए। रवि भी उनको हंसाता, घुमाता और साथ साथ पढाता है। बच्चे रवि के मामा जी से मिलने उनके घर भी जातें है। मामा-मामी को रमा भा जाती है।
कोई भी लेखक या कलाकार यह जानता है की रचनाओं में विषमता (Contrast) का होना कितना जरुरी है। द्राश्य, श्राव्य या अनुभव हो सके ऐसा कोन्ट्रास्ट दिखाने से रचनाओं में रस बढता है। रचनाएं और ईन्ट्रेस्टींग हो जाती है। मतलब की साईझ कोन्ट्रास्ट, एस्थेटीक/फील कोन्ट्रास्ट ... सब होना ही चाहिए। वरना कहानी या फिल्म भी सरपट या सपाट हो जाती है।
फील/एस्थेटीक कोन्ट्रास्ट का बढिया उदाहरण होलिवुड की फिल्म 'ध प्रपोझल' हो सकती है। ईस में शहर से निकल कर छोटे से टाउन में आ कर रहना फिर आखिर में वापस शहर का वातावरण दिखाना...वगैरह दर्शक को रसप्रद लगता है। होलिवुड की एसी सेंकडो फिल्म हैं...कास्ट अवे, ध ममी, रोकी वगैरह।
अपने यहां कोन्ट्रास्ट का उपयोग कम बार हुआ है वह भी माईल्ड लेवल पर। या जब अमीर हीरो/हीरोईन या गरीब हीरो/हीरोईन का प्रेम दिखाया गया हो तब आप यह कोन्ट्रास्ट महसुस कर सकतें है।
लेकिन गुलज़ार और ह्रिषिकेश मुकर्जी ने एस्थेटीक कोन्ट्रास्ट का उपयोग किया है जो बहुत कम फिल्म दिग्दर्शक कर सके। वह भी उस जमाने में...जब फिल्म बनाना ही एक चेलेन्ज था!
यहां पुरी कहानी बता देने से अच्छा है की आप स्वयं ईस फिल्म को देखे और अनुभव करे। यह फिल्म एक पुरानी फिल्म 'द साउंड ओफ म्युझीक' से प्रेरित हो कर बनाई गई है। लेकिन गुलज़ार जीने ईसमें अपनी वो दक्षता दिखाई है की फिल्म पुरी तरह भारतीय परिवेश में ढल गई है।आनंद, परिचय, खुश्बु जैसी कई एसी फिल्में है जो एक बार देखने जैसी नहीं है। आप उम्र के अलग अल्ग पड़ाव पर ईसे देखें, आपको एक नया अनुभव और सीख मिलती रहेगी!
गुलजारजी की ही फिल्म खुश्बु के बारे में यहां क्लिक कर के पढें।




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