पहली साइकिल तो तीन पहियों वाली होती है ना? मेरे पास भी वैसी साइकिल थी, लेकिन वह पूरी तरह प्लास्टिक से बनी हुई। मैं जब 5 वर्ष का हुआ तब तक वह टूट चुकी थी। उसके दो-तीन साल तक मैं साइकिल चला नहीं पाया।
फिर घर से थोड़ी दूर एक परिवार ने
भाड़े पर साइकिल देने का व्यवसाय शुरू किया। उन्होंने 5 से 6 छोटी दो पहिए वाली
साइकिल भाड़े पर देना शुरू किया था। आधे घंटे के 50 पैसे और 1 घंटे का ₹1! मैं तो
खुद को अमीरों में गिनता था, तो मैं 1 घंटे के लिए साइकिल लेता था!
मुझे
साइकिल मांगने में शर्म आती थी। तो पापा को लेकर जाता था। ज्यादातर वहां पर राह
देखनी पड़ती थी क्योंकि सारी साइकिल खत्म हो जाती थी। आधे घंटे के बाद मेरा नंबर
आता था और पापा पीछे से साइकिल पकड़ते और मैं उनको दौडता रेहता। फिर एक बार मैंने
पीछे मुड़ कर देखा तो पापा नहीं थे, और मैंने साइकिल चलाना सीख लिया था!
उसके बाद
भी मैंने भाड़े से साइकिल चलाई क्योंकि खुद की साइकिल मुझे बहुत देर से मिली। तब
मैं शायद पांचवी या छठवीं कक्षा में पढ़ता था। और मुझे कोई ज्यादा शौक भी नहीं था
कि साइकिल लेकर स्कूल जाऊं, क्योंकि स्कूल में मुझे एसटी बस से जाना अच्छा लगता था!
यह बस वाली कहानी मै आपको बाद में बताऊंगा।
इन भाड़े के साइकिल में कभी भी ब्रेक नहीं होते थे! अगर का साइकिल आधे घंटे के लिए नहीं है, तो डर रहता था कि समय आधे घंटे से अधिक ना हो जाए। नहीं तो 1 घंटे का किराया देना पड़ता था। इसलिए साइकिल 5 मिनट जल्दी ही दे दी जाती थी।
यह तो पहली साइकिल की बात जो मैंने सीखी थी लेकिन जो मुझे पापा ने खरीद कर दी उसी बातें करनी अभी बाकी है!

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