नमस्ते, आपका स्वागत है!
यहां मै कुछ अपने बारे में बताना चाहूंगा। बचपन से मेरी दुनिया बहोत सीमटी हुई है। हमारे वक्त में ईलेक्ट्रोनिग गेज़ेट्स, विडीओ गेम्स आदी बहोत कम हुआ करते थे....बिलकुल ना के बराबर। फिर जो बच्चे मेरे जैसे थे, जिनके ज्यादा दोस्त न हो या कम हो, वे अपना समय व्यतीत करने के लिए दूरदर्शन, कहानीयां, चित्रकारी आदी के 'व्यसनी' हुआ करते थे!
ईस तरह का 'टाईमपास' (टीवी को छोड के) बाकी बच्चो के लिए बहोत क्रिएटीव माना जाता है। कहेते है कि ईससे बच्चो की चीज़ो को समझने की शक्ति बढ़ती है। जो आगे बहोत काम लगती है!

हाला की अभी पीछले महिने अमेरीका से यह रिपोर्ट आई थी की मीकी माउस जैसे केरेक्टर्स, जिसमें प्राणी को ईन्सानो की तरह कपड़े पहने हुए और बाते करते हुए दीखाया जाता है....उससे बच्चो में मुर्खता बढ़ती है!
यह मैने अब जाना.....जब मेरा पूरा बचपन चंपक जैसे मेगेझीन पढ़ते हुए बीता! अब मैं सोच रहा हुं की अगर मैने यह सब नहिं पढ़ा होता तो आज कोई बड़ा ईन्सान होता?
कुछ यह भी मेरी आदत रही है...वक्त बेवक्त खो जाता हुं! खिडकी/बरामदे से बाहर झांकते रहेना, भींतो की पपडीयों में चहेरे देखना, छत या पंखे को ताड़ कर सोचते रहेना वगेरह मेरी बचपन की बिमारींया है! किताबों मे खोये रहेना, डायरीयों मे डुबे रहेना मेरा शौख रहा है। फिर भी....फिर भी कुछ खास याद नहीं है जो मैने कभी पढ़ा था। बस बच्चोंवाली कहानियां, मेगेझीन्स, कोमिक्स वगेरह। लेकिन वह कहानियां, मेगेझीन्स, कोमिक्स वगेरह उस खिडकी या बरामदे से कम नहीं थीं। मुझे वही जिंदगी, वही कुदरत, वही मौसम दिखते थे!
समय कभी साथ नही देता....वह बह जाता है जब उसे थम जाना चाहीए था.....वह रुक जाता है जब उसे जल्दी गुज़र जाना चाहीए था! मेरा बचपन, मेरे प्यारे दिन वह कहां ले गया होगा? क्या वह भी मेरी उन किताबों की तरहा पीले पड गए होंगे? क्या उनसे भी वह पुराने सामान जैसी गंध आ रही होगी? या वह अभी भी रुक कर मेरी राह देख रहे होगें? बिलकुल वैसे ही जैसे पहेले थे! भीगे भीगे से...

आज बहोत कुछ बदल गया है! श्री कृष्ण ने यह क्युं कह दिया...परिवर्तन संसार का नियम है? अगर वे यह नही कहेते तो कितना अच्छा होता! यह जगनिर्माण का हेतु अभी तक मुझे समझ नहीं आ रहा है! यह जग आगे विध्वंश की ओर बढ़ता ही जा रहा है, वह भी बडे गर्व या कभी लगता है बडा अंजान बन कर!
फिर भी अंदर कहीं एक आस तो होती है, शायद वह दिन वापस आयेंगे....जैसे नदी के नीर उल्टे बहते है! मुझे फिर से उस जगह, उस काल में संजो दिया जायेगा...वही पुराने लोगों के बीच जो अब बुढे से दिखते है! मै फिर से जीना चाहूंगा बिलकुल यही जिंदगी....दोबारा....ईसी तरह!
स्कूल की यादें
तीसरी कक्षा से स्कुल का मुख्य दरवाजा सामने ही पडता था! हमारी मेडम स्कुल की घंटी बजने की राह देखने को कहती थी, और हम बैग तैयार कर के बैठ जाते थे! मेरी बेन्च दरवाजे से सटी होने के कारण मै ईसी प्रकार भाग कर स्कुल से सबसे पहेले निकल पडता था! बाहर मेरे पापा को साईकल ले कर मेरी राह देखते हुए देख कर कितनी खुशी मिलती थी!
मेरा घर मेईन रोड पर था...जहां दुर एक सरकारी स्कुल थी। शाम पांच बजे जब सब बच्चे छुट कर जाते तो कई लोग उन्हे बरामदे में खडे हो कर (चाय पीते पीते) उन्हे देखा करते। वे बच्चे भी खुब थे...जैसे कोई परेड चल रही हो, वे सब अपनी अपनी मस्ती मैं दोडते, भागते, चिल्लाते, बतियाते हुए चलते चलते घर जाते थे!

और हम सोचते रहेते की हम कितने अमीर है! हमारे पास तो अब साईकिल भी है! जब आठवीं तक आएंगे तब हम भी साईकल ले कर स्कुल जाया करेंगे....
क्या ख्वाब था! कितनी राह देखी गई थी! कुछ एसे बच्चे भी हुआ करते थे जिनका मक्सद सिर्फ और सिर्फ धमाल मचाना था। प्रायः मे जिन्हे बहादुर समझता रहा उनको रोते हुए देख कर अचंबित रह गया!
हमारी स्कुल में फ्री पिरियड ज्यादा होते थे! या कभी मेडम को कुछ काम रहेता था....तो वह अपना काम करती थी। कुछ उनकी मुंहफट चमचीयां भी हुआ करती थी जो उनको कहती थी की दुसरे सर का होमवर्क बाकी है तो क्या वह हम कर सकते है? और एसे हमे फ्री पिरियड मिल जाते थे!
मेरा होमवर्क ज्यादातर कंप्लीट होता था....और में एसे फ्री टाईम में यह करते हुए पाया जाता था!

मेरे हिसाब से हमे खुब सारा होमवर्क दिया जाता था जो कम से कम एक-देढ घंटा चला करता था। यह तो बच्चो के साथ सरासर अन्याय था!
फिर जब शाम पांच बजे 'राजकुमार जी' खेलने को निकलते....
कंप्युटर तो बहोत दुर की बात है! हमारे स्कुल मे पंखे भी ठीक से नही चलते थे! दो पंखो में से एक तो बस यूं ही चमगादड़ की तरह लटके रहा करता था! सात दिन की सात अलग अलग प्रार्थनाएं माईक पर ७वीं कक्षा की लडकीयां गाती थी!
घर के पास वाले कीसी कीसी दोस्त की एसी भी स्कुल थी जहां टाई पहेनी जाती थी। आज कल जैसे रंगबेरंगी युनिफोर्म चलन में है, वैसे तो हम सोच भी नही सकते थे! हमारे पास सफेस शर्ट और ब्लु चड्डी हुआ करती थी सभी दोस्तो की ब्लु चड्डी के भी पचास शेड्स हुआ करते थे....ध फीफ्टी शेड्स ओफ ब्लु
एक दोर एसा भी था...जब आस पडोस तक खबर पहुंच गई थी की मैं गोपीयो से घिरा रहेता हुं....सिर्फ मुझे ही पता था की में कितना तन्हा हुं...
उन दिनो मैने सोच लिया था की २५-५० पैसे हफ्ते में खर्च नही किए तो क्या किया? अपनी कीसी नोटबुक में चवन्नी, पचास पैसे के सिक्के ले जाया करता था। जो चाहे चोकलेट, स्टीकर, रीफिल वगेरह....खरिद लिया! क्या एश थी!
एक बार एसा भी हुआ था...स्कुल छुट चुका था। दो पहर साडे बारह-एक का समय होगा। हम सब एक पुल के नीचे खडे थे, जोरो की बारिश हो रही थी। आज मैने सोच लिया के भले गीला हो जाउं लेकिन घर जल्दी पहुंच जाना है। सो मैने साईकिल आगे बढ़ा ली। गीला होते होते घर तक पहूंचा जो लगभग आघे घंटे की दूरी पर था।
लेकिन यह क्या?! यहां तो बारिश की बुंद भी नही गिरी थी, रोड सारे सुखे थे और सुरज भी चमक रहा था! रस्ते में लोग मुझे चोंक कर देख रहे थे, मै पुरी तरह पानी में तर था! मेरे घर तरफ उस दिन बारिश हुई ही नही और मै असमंजस मे बार बार आकाश की और देखता रहा था!

मै पहली कक्षा में पढ़ता था। शनिवार की सुबह सुबह सब बच्चों को स्कुल के बाहर ले जा कर लाईन में खडा कर दिया गया था। मुझे हर बार की तरह कुछ समझ नहीं आ रहा था की क्या हो रहा है। एक से सात कक्षा के सभी छात्रों को स्कुल के बाहर एक कतार में चलने की सुचना दे कर प्रिन्सीपल साहब स्कुल के पीछे की तरफ जाने वाले रास्ते पर चल दिए।
मैं डर के अपने किसी दोस्त को पुछ रहा था की क्या होने वाला है....
हमारी बटालियन धीरे धीरे आगे चल रही थी। हमने स्कुल के थोडे पीछे जा कर देखा तो एक विशाल मेदान था....जिसके दुसरे छोर तक नज़र भी नहीं पहूंचती थी!
दरअसल बात यह थी वह ग्राउन्ड एसआरपी का था। शायद कीसी की दरखास्त पर हम बच्चों को वहां खेलने की ईजाज़त मील गई थी। हम एक से सात कक्षा के बच्चों को वहां खडा कर के थोडी सुचनाएं देने के बाद हमे खेलने को छोड दिया!
यह हमारा सब से बडा उपहार था। शनिवार को स्कुल में पुरे पांच पिरियड होते थे...हम सिर्फ खेलते ही रहे....खेलते ही रहे! मेरे मन में एक और खुशी/बेताबी बढ़ रही थी। कल ईतवार जो था!
सातवीं कक्षा में अचानक हम दोस्तो ने हररोज रिसेस में वही पुराने ग्राउन्ड में जाने का सोचा। लगभग एक माह तक हम रोज मस्ती, खेलकुद से दुर कुदरती वातावरण का आनंद लेते थे....उन दिनो मेरे लंचबोक्स में क्या होता था पता है?

सातवी कक्षा के बाद स्कूल का समय १२ बजे से ५.३० का होने वाला था.....सुना था की दो रिसेस मीलने वाली है, बडी रिसेस में कुछ बच्चे घर भाग जाते है! बहोत सारे फ्री पिरियड होते है और आप क्लास में सो भी सकते हो!
४-५ कक्षा में कुछ एसे भी दिन थे जब मुझे स्कूल वाकई अच्छा लगने लगा था! में सोचता था कि 'बचपन' मे मै कितना पागल था क्युं की २-३ कक्षा में मुझे स्कुल जाना अच्छा ही नहि लगता था। लेकिन अब यहां मेरे दोस्त बनने लगे थे।
स्कूल १२ बजे छुट जाया करता था। अब मै पहली बेन्च पर बेठने के बावजुद सबसे आखिर में क्लास से नीकलता था। शायद ईस लिए की खाली क्लास को देखना मुझे अच्छा लगता था। कभी कभी वह घर जैसा दिखता था। कुछ एसा ही होता था मेरा क्लास रुम...बस उस वक्त एसी प्लास्टिक की कुर्सीयां नहि होती थी!

हर एक बैंच की अपनी एक कहानी होती होगी । हर एक बच्चा अपनी कोई न कोई निशानी बैंच पर छोड ही जाता है। बैंच पर अपना नाम खुरदना, या बोलपेन से मोटे मोटे अक्षरों से लिख देना। कोई बच्चा मेरी तरहा तबले की थाप दे कर ज़ोरो से गीत भी गाता होगा। क्या बैंच को यह सब पसंद होगा?
फिर स्कुल में दिवाली के समय कुछ दोस्त छुपा कर एसे फोटो वाले ग्रीटींग कार्ड लाने लगे थे! अगर आपको चवन्नी में अमिताभ या माधुरी मील सकती हो तो क्या आप दिवाने नही हो जाओगे? उन दिनो मेगेझीन तो हर घर में होते नही थे, ले दे कर एक दिन समाचार पत्रों मे बोलिवुड की पुर्ति आती होगी। अखबार भी रोज़ थोडे ही मंगवाया जाता था!

हम तो पोस्टकार्ड साईज रंगीन फोटो देख कर दंग रह गये थे। फिर जो आपको वह चवन्नीयों वाला किस्सा सुनाया था न? उन से देढ रुपये जमा कर मैने ६ ग्रीटींग कार्ड्स खरीदे! उन ६ कार्ड्स में एक तो अमिताभ जी का था। एक नये एक्शन हीरो अजय देवगन का था। बाकी चार खुबसुरत फुलो के थे....जी नही सही में फुलो वाले कार्ड्स थे| कार्ड में सिलवटें न हो जाए इस लिए एक नोटबुक में उन्हे रख दिया था। दो चार दिन तो सब को कार्ड दिखाता रहा, लेकिन एक दीन रीसेस टाईम में किसी एक लडकी ने वह कार्ड्स ले कर सहेलींयो को दे दिए। मेरे क्लास में वापस आने पर वे सब मुझे कार्ड दिखा कर चिढ़ाने लगी। मै हरएक कार्ड उनसे छीन लाया....लेकिन सब में सिलवटें पड चूकी थे!
स्कूल मे हम बच्चों की जो बातें होती थी...क्या बताउं। यहां-वहां, ईधर-उधर, दुनिया भर की बातें! लेकिन उनमें से आधी बाते भी हमारे काम की नही होती थी। बाकी आधी जो काम की होती थी उनमें भी कोई तुक वगेरह नही हुआ करता था! लेकिन बातें करने का मज़ा ही कुछ और था। यह ओर हाल है की आज लोग मुझे कहते है तुम बहुत कम बोलते हो!
क्लास में कभी कभी नई नई चीजें भी आती रहती थी, जिनमें पेन सबसे ज्यादा चर्चामें रहता था । चोथी कक्षा तक तो हम पेन्सिल का ही उपयोग करते थे। बार बार उसे छीलने के बहाने क्लासरुम के बाहर निकलते थे! कुछ एसे बच्चे भी थे जो शार्पनर की बजाए ब्लेड का उपयोग करते थे। मुझे तो उंगली कटने का डर लगता था लेकिन मेरा शार्पनर बार-बार गुम होजाने के कारण मै भी ब्लेड का ईस्तमाल करने लगा था।
पांचवी कक्षा की पहले या दुसरे ही दिन हमारी सबसे खतरनाक शिक्षिका ने (जो ईग्लिश पढ़ाया करती थी) एलान किया की कल से आप अपना पेन ले कर के आओगे। वैसे हमे तो पता ही था की पांचवी कक्षा में, ईग्लिश विषय में, आपको पेन से ही लिखना पड़ता है। लेकिन फिर भी....मुझे लगा कि मै बहुत बड़ा हो गया हुं। पापा की तरह मै अब पेन से लिखुंगा! यह बहूत बड़ी बात थी मेरे लिए!
पेन में उन दिनों आज की तरह ज्यादा वेराईटीझ नहीं हुआ करती थी। ओप्शन जो उपल्बध होते थे...एक रूपयेवाली या ज्यादा से ज्यादा दो रुपएवाली। सादी या नुकीला पोईंट। बस। ईतना ही।
अगर रीफील खत्म हो जाए तो बाकाईदा नई रीफील ली जाती थी। ये नही के रीफील खतम तो नया पेन।
हां एसा हो सकता था की आपको क्लास में या स्कुल के ग्राउन्ड से कीसीका गीरा हुआ पेन मिल जाए। जब आप नए पेन से या उस मिले हुए पेन से लिखना शुरू करो....तुरंत बाजुवाल मित्र आपको पुछता भी था (सभी एक दुसरे के पेन के बारे में जानते ही थे।) की..."नया पेन लाया? दिखा दिखा!"
मतलब के कोन से मित्र के पास कोन सा पेन है यह सभी को पता होता था। पेन की सबकी अपनी अपनी मनपसंद ब्रान्ड हुआ करती थी। स्टीक मतलब पुष्पा, रेनोल्ड मतलब तेजल।
कभी कभी पापा की ओफिस में पेन दिए जाते तो वह पेन मुझे देते। लेकिन वह पेन मुझे पसंद ही नही था...बिना ढक्कन वाला मोटा सा पेन।
मैने पापा के पुराने पेन को काट कर एक एसा पेन बनाया था जीससे लिखा भी जा सकता था और, पीछे फुंक मारने से सीटी बजती थी! मैने अपने एक पुराने खिलौने की सीटी उसमें डाल दी थी!
आठवी कक्षा में एक वैशाली नाम की लड़की एक पैन लाई थी, उससे लिखने कागज़ से खुश्बु आती थी! उस पेन का आकार गोल सिलिन्डर नही लेकिन चोकोर सिलिन्डर था। सफेद, लाल, हरा, गुलाबी, सायन जैसे मनमोही देशी-विदेशी रंगो में यह पेन उपलब्ध था। किंमत थोडी सी ज्यादा थी - पांच रुपये।
छठी कक्षा मैं तो एसे पेश आते थे मानो हम बारहवीं कक्षा में आ गए हो, या उतने ही मेच्योर हो गए हो। झगड़े भी बढ़ गए थे। मुझे जो लगता था कि पुरा क्लास मेरे साथ है, वह अब गलत साबित हो रहा था। खेल-कुद, हाजरजवाबी, कपडेलत्ते, ग्रूप और शेखी मारने वाली बातों में मै पीछे रह गया था। मेरा अब तक जो पढ़ाई में अव्व्ल रहने का रेकोर्ड था वह तुट चुका था। पिछले साल मेरा पांचवा नंबर आया था।
ईस साल मेरा लड़कीयों वाला ग्रूप भी तुट चुका था। सो मै पुरा ध्यान पढाई में लगा रहा था। अपने बचपन और पुराने दिन एसे याद करता था जैसे में अब कर रहा हुं! ईस बात से अंजान की ईस साल की तीनों परीक्षा में मेरा अव्व्ल नंबर आनेवाला था और मुझे सर्टिफीकेट भी मिलनेवाला था!
ईसका मतलब यह नहीं की मैं बहुत ही ज्यादा होशियारचंद हुं। बल्कि मेरे कोम्पेटीटर को अब पहला नंबर लाने की कोई पड़ी न थी। वे सब अपनी धुन में मस्त थे!

मुझे हाल ही में मिले उस स्कुलमेट का जिसने मुझे यह 'प्लास्टिक बैग्स' की याद दिलवाई। यह बैग्स बुक्स निकालते वख्त आवाज़ बहुत करते थे। हम हंमेशा सर-मैडम को आवाज कर कर के चिढाते थे!
कीतनी बार यह प्लास्टिक बैग्स ने धोका दिया है । फट के पुरी किताबें बिखेर दी है। अधिक वजन रखने से ईनके हैन्डल भी तुट जाते थे। लेकिन बरसात में यही सबसे ज्यादा भरोसेमंद रहे थे। बारिश के दिनों में स्कुल बैग्स में प्लास्टिक बैग रख कर उनमें किताबें रखी जाती थी।
८ वीं कक्षा से स्कूल बैग का खर्चा बच गया। उन दिनों कोलेस स्टुडन्ट सिर्फ एक नोट ले कर कोलेज में जाते थे। आप ९० के दशक की कोई फिल्म देख लो....अक्षय या आमिर की! सिर्फ एक नोट में सारे विषयों का समावेश हो जाता था! हालां की कुछ स्टुडन्ट्स प्लास्टिक बैग युझ करते थे। यही ट्रेन्ड था उस समय का।
हम भी ८ वीं कक्षा से तरह तरह के प्लास्टिक बैग्स ले कर स्कूल जाने लगे। यह बेग एक-देढ महिने साथ निभाता था।
स्कुल के ईस आठवीं क्लास के ख़तम हुए दायके ग़ुजर गए है! ईस दौरान दो-तीन दोस्त कभी-कभार मिल गए। बातें हुई। एक बात वे खास बोले...पुरानी बातें है, ईनमें अब क्या रखा है? तब हम छोटे थे और नासमज थे...वगैरह।
सही है....अतीत को साथ ले कर कौन पागल जीता है भाई? लेकिन मेरे दिमाग में जैसे की कहा था की कुछ केमिलल रीकेशन का लोचा है! कुछ ना होते हुए भी वह दीन एसे महसुस होते है जैसे शाम को किसी सड़क पर पीछे छोड़ा हुआ कोई एसा चौराहा जहां थोड़ी सी रोशनी थी।
सब कुछ भुल कर कुछ साल जिंदगी के जद्दोजहद में बीततें है। फिर कोई तराना, कोई खुश्बु, कोई त्यौहार या बरसात, फिर से पुरा स्कूल सामने ला कर रख देती है! यह पागलपन नहीं तो ओर क्या है?

उन दिनो विडीओ गेम आदि तो होते नही थे, ट्युशन का भी नामोनिशान नहीं था। स्कुल में जो पढ़ा वही साल भर बाद परीक्षा में लिखना पड़ता था। ईसलिए हमारे पास तो फालतु समय खुब हुआ करता था। आप खेल कुद् करके थक जाओ फिर भी दिन खत्म नही होता था!
फिर रात को टीवी चालु कर के बैठ जाते थे। पांच-दस मिनट के बाद कोई प्रोग्राम दिखाई देता था, वरना युं ही झरमर झरमर बारीश सा स्क्रीन सब देखा करते थे। आस पास से महेमान भी वक्त गुज़ारने आ जाते थे, वरना हम कहीं चले जाते थे।
समय बहुत था, जो धीरे धीरे गुज़रता था, अच्छा गुज़रता था!
यह मेरी अपनी सचीमुची की यादें है! यह मेरा सच है!
आपको कैसा लगा यह पढ कर जरुर बताईगा और अपनी कोई पुरानी यादें हो तो जरुर साझा किजीएगा!
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