९० के दशक की बात कुछ ओर ही थी। केबल टीवी, कम्प्युटर, ईंटरनेट और बोलिवुड का प्रभाव सबके जीवन पर रहा। पीछले, अर्थात ८० के दशक में जो एक ठहराव हुआ करता था, उसने अब मानो तेज़ गति पकड़ ली थी। हमारे घर के आसपास की लडकीयां अब जिंस भी पहनने लगी थी। हम लड़के फेशन के नाम पर सलमान, शाहरुख या अजय देवगन की कॉपी किया करते थे! वैसे अक्षय की रफ एंड टफ जिंस ने भी काफी तांडव मचाया था!
मार्केट में हीरो होंडा, स्प्लेंडर, मारुति ८०० जैसे व्हीकल आने लगे थे और स्कूटर पुराने ज़माने का कहलाने लगा था। नारी के लिए भी यह समय बहुत अवसरवादी लगने लगा था। राजनीति में भी काफी उठापटक चल रही थी। एसा लगता था की कुछ अच्छा और नया होनेवाला है! एशवर्या राय, सुश्मिता सेन जैसी महिलाओं पर पुरी दुनिया की नज़र थी। विदेशो की नई नई ब्रांड और प्रोड्क्ट यहां आने लगी थी। ईसे सामाजिक बदलाव कहा जा सकता है।
खैर, ९० का दशक... मेरे लिए कैसा रहा यह आपसे साझा करना चाहूंगा!
केबल टीवी
केबल टीवी जब नया नया आया था, मानो मंगलग्रह की कोई तश्तरी दुनिया पर उतर आई हो! दूरदर्शन पर शनिवार और ईतवार को सिर्फ दो पुरानी फिल्में देख कर, फिल्मी चाहकवर्ग का जो असंतोष रह जाता था... वह यह कैबल टीवी पुरा करनेवाला था। हम बच्चों को तो घरवालों ने डरा दिया था की ईससे पढाई बिगड़ती है... लेकिन अगर टीवीसेट कैबल का कनेक्शन केचअप कर लेता है तो ठीक है!!!
उसके लिए क्या करना होता था की, कोई भी एक तार ले कर उसे एंटेना के तार के उपर या अंदर फंसा देना था। फिर उस लगाए गए एक्स्ट्रा तार का दुसरा छोर पकड़ कर घर में या बरामदे में घुमना रहता था... वही "आया?" "आया?" का नाटक करते हुए!
अगर कनेक्शन पकड़ में आ गया तो वहीं उस तार के छोर को लटका लो, बांध दो...चाहे कुछ करो। फिर उपर से हीलती हुई तसवीर आती थी। ज्यादातर हीरो के बाल या सर टेढे दीखते थे। और बाकी नीचे की तसवीर में चार ईंच तो एड्वर्टाईजमेंट के एनिमेशन भरे रहते थे! तो ऐसे हमने तो बहुत सी फिल्में देखी, लेकिन कभी केबल कनेक्शन नहीं लगवाया!
कम्प्युटर
कम्प्युटर तो मानो कोई स्पेसयान था। उसे देख कर पहले तो ज्यादा समज़ ही नहीं आया। सिर्फ ईतना पता था की बड़े लोग ईस पर अपना काम करते है। पहली बार जब कम्प्युटर देखा तो वह टीवी से ज्यादा कुछ नहीं लगा! क्युं की जब मित्र के वहां वह कम्प्युटर देखा था, वह उस समय उस पर कोई ईंग्लिश मुवी देख रहा था। वह मित्र वैसे मुझसे बड़ा था और ईंग्लिश मिडीयम का विद्यार्थी होने कारण अकडू भी था। वैसे मेरे साथ तो वह अच्छा था तो उसने मुज़े कम्प्युटर युझ करने को दिया। माउस से एम एस पेंट में कुछ चीडीया-विडीया वगैरह बना कर मैं घर पर चला आया। लेकिन कम्प्युटर का खयाल दिमाग से जा ही नहीं रहा था।
उसके बाद सीधे चार-पांच सालों के बाद एक मैडम जी हमे स्कूल से अपने
कम्प्युटर क्लास में ले गई... क्युं की उनको अपनी एड जो करवानी थी! उस
दौरान मैने कम्प्युटर पर एक गेम खेली थी..अलादीन वाली। वह आधा घंटा अभी भी
मुज़े याद है। एसा लगता था की यह चीज़ मेरे पास होनी चाहिए... लेकिन कभी मिलेगी ही नहीं।
उसके थोडे ही वर्षो घर में कम्प्युटर आ गया। फिर कुछ बैचेनी खत्म हुई!
दोपहीया /
बाईक के बारे में सोचना तो बहुत ही बड़ी बात थी। हमारे पास मोपेड़ हुआ करती थी - हीरो मैजेस्टीक! और वही हमारी ट्रावेलींग पार्टनर थी। उस पर हम खुब घुमते थे। उन दिनों हीरो होंडा १०० सीसी नीकली थी। वह बहुत बढिया बाईक थी। लेकिन मुज़े उसकी हेडलाईट बिलकुल मोपेड की तरह लगने के कारण.... पसंद नहीं आ रही थी।
फिर हुआ यह की एक नई बाईक आई, जो देखने में शानदार थी। उसकी हेटलाईट उपरवाले कवर के कारण पुरी बाईक का शेप/आकार बहुत आकर्षक लगता था। हालां की उसके मडगार्ड यानी की पंखे...प्लास्टिक के थे। जलनेवालें बताते थे की वह बैकार है और तुट जाएंगे .... लेकिन मेरा स्प्लेंडर के प्रति प्रेम बिलकुल सात्विक था!
और ज़ाहिर है...सात्विक प्रेम कभी साकार नहीं होता, होता भी है तो देर से!
No comments:
Post a Comment