Wednesday, 22 June 2022

बर्फ का गोला


बर्फ का गोला.... चुस्की का प्रारंभिक स्वरुप, सबने जीवन में खाया ही होगा। बस, उसी की कुछ यादें लिख रहा हुं, कैसे पहली बार बर्फ का गोला खाने को मिला और फिर दोबारा उसके लिए क्या क्या पापड बेलने पडे!
मुझे बर्फ तो क्या, ठंडे पानी पीने की भी मनाही थी। वैसे तो घर में फ्रिज था ही नहीं, सिर्फ एक ही दोस्त के घर पर फ्रिज था। लेकिन मुझे टोंसिल्स हो जाते थे, अगर मैं आईस्क्रीम खाउं या ठंडा पानी पी लुं। मम्मी की डांट फिटकार से तो अच्छा था कि मैं एसी कोई चीज़ें खाउं ही ना।

एक बार मैं अपने दोस्त के घर खेलने के लिए गया था। वहां शाम के साड़े पांच बजे एक बर्फवाला निकला। मेरा दोस्त उसकी मम्मी से जिद्द करने लगा। मुझे अभी बर्फ के गोले के बारे में पता ही नहीं था। देखा था लेकिन कभी खाने को भी मिलेगा, कल्पना करना मुश्किल था!

दोस्त की मम्मी ने चवन्नी दी। हम दोनों एक एक प्लेट ले कर वहां गए और दोस्तने बिना पुछे ही ओरेन्ज रंग डलवा दिया। उन दिनों बर्फ के घिस-पिस कर हाथों से ही दबा कर गोल लड्डु सा बना दिया जाता था। फिर उस पर कोई एक रंग डाल कर दिया जाता था। दाएँ-बाएँ दो अलग अलग रंगो का चलन थोडी देर से शुरु हुआ।
फिर वापस घर आ कर हम बर्क के गोले की चुस्कीयां लेने लगे। तब क्या बताउं के कितना मज़ा आ गया!

फिर आधा गोला खत्म करने पर मेरे दोस्त ने कहा अब ईस पर थोड़ा नमक डाल कर खातें है, मज़ा आएगा। अब तक तो गोले का मज़ा आ ही रहा था, नमक छीडकने के बाद स्वाद बढ गया! फिर मेरे दोस्त ने बताया की अलग अलग रंगो का स्वाद अलग अलग होता है, अब अगली बार काला खट्टा रंग खाएंगे। मैं भी हां में हां मिलाता रह गया। उस दिन हम क्या खेले क्या नहीं, लेकिन क्रुतज्ञावश में उस दिन उसकी सारी बातें मानता रहा!

तो एसा था मेरा पहला अनुभव बर्फ के गोले खाने का।
 
थोड़ा बडा हो जाने के बाद तो मैं घर से बाकायदा पैसे ले कर गोला खाने के लिए जाता। लेकिन एसा बहुत कम बार होता, क्युं की बर्फ खाने की घर से मंजुरी नहीं मिलती थी। हर बार 'ना' सुनना पडता था। फिर मुझे एक और मित्र मिला। 
 
उसके पास पता नहीं कैसे, हंमेशा पैसे होते थे। वह शायद मम्मी-पापा और बड़े भाई से अलग अलग पैसे लेता होगा। लेकिन जो भी हो, वह दिलदार दोस्त कम से कम... तीन-चार लोगों को बर्फ जरुर खिलाता था! यानि एक अठन्नी तो वह खर्च कर ही देता था। कभी कभी जब तीन-चार की जगह हम दो लोग ही मौजुद होते तो हम दो बार भी बर्फ खा लेते! मुझे बोनस का मतलब बचपन से ही पता था!
 
जब हम बर्फ खरीदते तो उसे छुप कर खाते. ताकि अधिक बच्चें हमें देख न लें और सबको या घरवालों को पता ना लगे। झाडीयों के पीछे बैठ कर हम आराम से बर्फ खाते और होठों के बदले हुए रंग को वापस सामान्य होने पोंछते रहते!

ईस तरह बर्फ के गोले का जादू बहुत लंबा चला।
 
हां, बर्फवाला गर्मीयों की सीझन में आता था। मतलब जब हम बर्फ खा रहे थे उन दिनों वेकेशन होता था या उसकी तैयारी होती थी। ईसलिए वेकेशन का मज़ा और बर्फ़ का गोला .... ईन दोनों की मिश्रीत यादें बहुत ही बढिया बनी!
 
वैसे, आठवीं कक्षा में जब स्कूल के पास एक बर्फवाला लड़का अपना ठेला ले कर आता... उस पर मुज़े गुस्सा आता था। हमारी स्क़ुल का रिसेस समय दोपहर तीन या साड़े तीन बज़े हुआ करता था। वह गोलेवाला लड़का बिलकुल टाईम पर आ के अपना ठेला लगा देता था। उसकी उम्र भी अधिक तो नहीं थी, शायद दो-तीन साल बड़ा होगा।  
 

 
उस समय वह एक टोपी खास पहनता, वैसी ही जैसी आमिरखान ने फिल्म दिल है की मानता नहीं में पहनी थी। पता नहीं, एसी कैप उसे कहां से मिल गई थी। गोराचीट्टा और भुरी आंखो के कारण वह कैप उस पर जंचती भी थी।
 
वहां हमारे और बाकी क्लास की लड़कीयां भीड़ जमा देती थी। वह बर्फवाला खुद को हीरो समजने लगा था। हमारे क्लास की एक लड़की को बिना पैसे भी गोला दे देता था। हमारे लिए बात बहुत संदेहास्पद थी। हम जब बर्फ लेने जाते तो हमे वह देर से ही बर्फ देता, पहले वह सारी लड़कीयों को ही बर्फ खिलाता। बहुत गुस्सा आता था उस पर... लेकिन खैर!
 

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